थके पथिक को
रास न आए
सौ चौराहे भटक रहे हैं।
कई दिनों से
काट रहे पल
रोज भँवर में
समझ न आती
दूर-दूर तक
राह शहर में,
बहुत कठिन है
मंजिल पाना
भीड़-भाड़ में
घबड़ाए सब
आज सड़क पर अँटक रहे हैं।
भरमाए से
खडे़ सफर में
देख अपरिचित
मंजिल अपनी
किससे पूछें
एक न परिचित,
भले-बुरे की
परख नहीं है
इस कारण से
मुल्ला-पंडित
नजरों में नित खटक रहे हैं।
एक पंथ के
दोराहे शत
आज हुए हैं
चौराहे पर
अंधकार के
राज हुए हैं,
कितनी राहें
बढ़कर आगे
बंद पड़ी हैं
विवश खड़े सब
ठिठक पैर को पटक रहे हैं।